आभै उतरी, पीत पट,
लाल नैण तन हार |
सोई रूठी भाम ज्यूँ,
झालर री झणकार ||३३१||
लाल नैण तन हार |
सोई रूठी भाम ज्यूँ,
झालर री झणकार ||३३१||
अरुणारे नयनों वाली संध्या -सुन्दरी पीले वस्त्र पहन तथा तन पर तारक-हार धारण किए आकाश में अवतरित हुई | इसके साथ ही मंदिरों में आरती के समय झालर की झंकार बज उठी व इसके साथ ही रूठी हुई स्त्री समान संध्या सो गई व रात्री प्रकट हो गई |
दिन सूं आगी रात नित,
बोलै नीं मिल बैण |
दो दिल साथ मिलाविया,
सांझ सहेली रैण ||३३२||
बोलै नीं मिल बैण |
दो दिल साथ मिलाविया,
सांझ सहेली रैण ||३३२||
दिन के बाद प्रतिदिन रात आती है परन्तु ये आपस में साथ रहकर बात भी नहीं कर सकते लेकिन संध्या रूपी सहेली ने आज इन दो दिलों को (दिन व रात्री को) आपस में मिला दिया है |
सुरां तणी आ सोमता,
चाँद तणी मुस्कान |
नभ- गढ़ उतरी चांनणी,
गोर रूप गुण खांन ||३३३||
चाँद तणी मुस्कान |
नभ- गढ़ उतरी चांनणी,
गोर रूप गुण खांन ||३३३||
देवताओं की सोम्यता और चंद्रमा की सी मुस्कान लेकर यह चांदनी जिसका गौरव पूर्ण है जो गुणों का खजाना है - आकाश रूपी गढ़ से उतरी है |
हंसती आ हंसागवण ,
मनां दाह मेटीह |
ठंडी गोरी हिम जिसी,
हिम-कर रो बेटीह ||३३४||
मनां दाह मेटीह |
ठंडी गोरी हिम जिसी,
हिम-कर रो बेटीह ||३३४||
हंसो पर सवारी करने वाली हंसती हुई जब ये संध्या आई तो मन की अग्नि को ऐसे शांत करती हुई प्रतीत हुई मानों चंद्रमा की पुत्री ने आकर शीतलता प्रदान की हो |
नदियाँ नित सूखी रहै,
जद कद सजली धार |
साहित रस भागीरथी ,
इण धर सदा बहार ||३३५||
जद कद सजली धार |
साहित रस भागीरथी ,
इण धर सदा बहार ||३३५||
बहुत सी नदियाँ सूखी रहती है | वर्षा होने पर इनमे कभी-कभी जल प्रवाहित होता है पर साहित्य -रस रूपी भागीरथी (गंगा) इस धरती पर हमेशा बहती रहती है |
सूरा रस संसार रो ,
तोलो हेकण साथ |
भारी पलड़ो इण धरा,
भारी इण रो गाथ ||३३६||
तोलो हेकण साथ |
भारी पलड़ो इण धरा,
भारी इण रो गाथ ||३३६||
सारे संसार के वीर रस व वहां की वीरता की कथाओं को एक पलड़े में रखा जाय व दुसरे पलड़े में राजस्थान के वीर रस व यहाँ की वीर गाथाओं को रखा जाय तो भारी पलड़ा इस राजस्थान की धरती का ही रहेगा |
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