बिण ढाला बांको
लड़े,
सुणी ज घर-घर वाह
|
सिर भेज्यौ धण
साथ में,
निरखण हाथां नांह
||९७||
युद्ध में वीर
बिना ढाल के ही लड़ रहा है | जिसकी घर-घर में प्रशंसा हो रही है | वीर की पत्नी ने
युद्ध में अपने पति के हाथ (पराक्रम) देखने के लिए अपना सिर साथ भेज दिया है |(उदहारण-हाड़ी
रानी )|
मूंजी इण धर
मोकला,
दानी अण घण तोल |
अरियां धर देवै
नहीं,
सिर देवै बिन मोल
||९८||
इस मरुधरा में
ऐसे कंजूस बहुत है जो दुश्मन को अपनी धरती किसी कीमत पर नहीं देते व ऐसे दानी भी
अनगिनत है जो बिना किसी प्रतिकार के अपना मस्तक युद्ध-क्षेत्र में दान दे देते है |
खलहल नाला खल
किया,
बिन पावस किम आज ?
सिर कटियो धर
कारणे,
धर रोवै सिर काज ||९९||
बिना ही पावस ऋतू
के आज ये नाले खलखल करते कैसे बह उठे है ? यह इसलिए कि वीरों ने धरती के लिए सपने सिर कटा
दिए है परिणामत: धरती अपने उन्ही सपूतों के प्रति कृतज्ञता वश रुधिर-धारा के रूप
में आंसू बहा रही है ||
कर केसरिया धर
रंगी,
आली ! मो भरतार |
सधवा धरणी सह करी,
विधवा परणी नार ||१००||
हे सखी ! मेरे
वीर स्वामी ने केसरिया कर धरती को लहू से रंग दिया है | यों उन्होंने इस सारी पृथ्वी को तो सधवा
(सुहागन) कर दिया है; परन्तु मुझे विधवा कर दिया है | अर्थात वीर युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त
हो गया है |
हेली ! देखो आज
किम,
अम्बर दिसै आग |
सुरगां पीव
सिधावता,
जलद झकोली खाग ||१०१||
हे सखी ! देखो आज
आकाश में यह लाली कैसी दिखाई दे रही है ? लगता है मेरे प्रियतम ने स्वर्ग सिधारते हुए
मेघ जल में अपना खड्ग धोया है |
आ लाली लख अरस री,
आली, नहीं अबीर |
लपटां जौहर जालगी,
अवनी आभो चीर ||१०२||
आसमान में लाली व
उसमे चमकते हुए कणों को देखकर सखी कल्पना करती है कि आकाश में किसी ने अबीर युक्त
गुलाल बिखेर दिया है | सखी की इस कल्पना से असहमत होते हुए वीरांगना कहती है -हे
सखी ! तू आकाश की लाली को व उसमे चमकने वाले कणों को ठीक प्रकार से देख यह गुलाल
अबीर नहीं है | ये तो धरती से उठती जौहर की आकाश को चीरती हुई उठने वाली लपटों का प्रभाव है
जिसके कारण आकाश लाल हो गया है व बीच-बीच में चमकने वाली आग की चिंगारियां है न कि
अबीर |
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