बीजल सी चंचल लुवां,
नागण सी खूंखार |
पाणी सूँ पतली घणी,
पैनी धार कटार ||२४४||
राजस्थान में चलने वाली गर्म हवाएं बिजली सी
चंचल है ,नागिन सी भयावह है , पानी से भी पतली है तथा कटार की धार सी तीक्षण
है ||
बालै , चूंवै
अंग सूँ ,
नह दीसै नैणांह |
भूतण सी भटकै दिवस,
लू डरपै रैणाह ||२४५||
गर्म हवाएं आग सी जलाती है तथा पसीने के रूप
में अंग प्रत्यंग से चूती है ये आँखों से दिखाई नहीं देती एवं दिन भर भूतनी सी
इधर-उधर भटकती फिरती है | रात पड़ने पर ये
डरकर दुबक जाती है (मरुस्थल में रात में ठण्ड पड़ती है) |
जाल्या पीलू जीमणा,
लुवां तापणों गात |
नर रहसी नी रोग नित,
इण धरती परताप ||२४६||
जाल तथा पीलू वृक्ष के फलों को खाना तथा गरम
हवाओं से अपने शरीर को तपाना -इन दोनों के फलस्वरूप यहाँ के लोग सदैव निरोग रहते
है | यह इस धरती का ही प्रताप है |
लुवां ! भाजो किम भला,
भाज्यां धर लाजन्त |
आई बरसा सोक आ,
लिपटी हिवडे कन्त ||२४७||
हे गरम हवाओं ! भागो मत , भागने से यह धरती लज्जित होती है | लो ! तुम्हारी यह सोतन वर्षा आ गई है व् पति
(इस प्रदेश) के हृदय से लग गई है |
काला पीला रेत कण,
बायरिये चढ़ धाय |
सूरां रा संदेसडा,
परदेसां पहुंचाय ||२४८||
काले पीले रेत के कण हवा के साथ आकाश में चढ़
इधर उधर दौड़ रहे है | एसा लगता है
मानों यह रजकण शूरवीरों के संदेशों को परदेश में इनकी प्रियतमाओं के पास लेकर जा
रहे हों |
झीणी रज आभै झुकी,
दिनकर दीसै दोट |
जाणे कांसो वाटको,
झांकै धूमर ओट ||२४९||
आकाश में गर्द छा गई है ,जिससे सूर्य धुंधला दिखाई देता है | सूर्य एसा लगता है ,जैसे
धुंए के बीच कांसे का कटोरा हो |
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