Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-41


बीजल सी चंचल लुवां,
नागण सी खूंखार |
पाणी सूँ पतली घणी,
पैनी धार कटार ||२४४||

राजस्थान में चलने वाली गर्म हवाएं बिजली सी चंचल है ,नागिन सी भयावह है , पानी से भी पतली है तथा कटार की धार सी तीक्षण है ||

बालै , चूंवै अंग सूँ ,
नह दीसै नैणांह |
भूतण सी भटकै दिवस,
लू डरपै रैणाह ||२४५||

गर्म हवाएं आग सी जलाती है तथा पसीने के रूप में अंग प्रत्यंग से चूती है ये आँखों से दिखाई नहीं देती एवं दिन भर भूतनी सी इधर-उधर भटकती फिरती है | रात पड़ने पर ये डरकर दुबक जाती है (मरुस्थल में रात में ठण्ड पड़ती है) |

जाल्या पीलू जीमणा,
लुवां तापणों गात |
नर रहसी नी रोग नित,
इण धरती परताप ||२४६||

जाल तथा पीलू वृक्ष के फलों को खाना तथा गरम हवाओं से अपने शरीर को तपाना -इन दोनों के फलस्वरूप यहाँ के लोग सदैव निरोग रहते है | यह इस धरती का ही प्रताप है |

लुवां ! भाजो किम भला,
भाज्यां धर लाजन्त |
आई बरसा सोक आ,
लिपटी हिवडे कन्त ||२४७||

हे गरम हवाओं ! भागो मत , भागने से यह धरती लज्जित होती है | लो ! तुम्हारी यह सोतन वर्षा आ गई है व् पति (इस प्रदेश) के हृदय से लग गई है |

काला पीला रेत कण,
बायरिये चढ़ धाय |
सूरां रा संदेसडा,
परदेसां पहुंचाय ||२४८||

काले पीले रेत के कण हवा के साथ आकाश में चढ़ इधर उधर दौड़ रहे है | एसा लगता है मानों यह रजकण शूरवीरों के संदेशों को परदेश में इनकी प्रियतमाओं के पास लेकर जा रहे हों |

झीणी रज आभै झुकी,
दिनकर दीसै दोट |
जाणे कांसो वाटको,
झांकै धूमर ओट ||२४९||

आकाश में गर्द छा गई है ,जिससे सूर्य धुंधला दिखाई देता है | सूर्य एसा लगता है ,जैसे धुंए के बीच कांसे का कटोरा हो |

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