राहू डसियां नह छिपै,
छिपै न बादल ओट |
झीणी रज पड़दै छिपै ,
दिनकर करमां खोट ||२५०||
राहू के ग्रसने पर भी जो पूरी तरह नहीं छिपता
और न ही बादलों की ओट में छिपता है | वही
सूर्य झिनी गर्द के आवरण में छिप जाता है | इसे
सूर्य के कर्मों का दोष ही कहा जा सकता है |
रजकण चढ़ आकास में,
सूरज तेज नसाय |
धावो झेलै वीर गण,
सामां पैरा जाय ||२५१||
मिटटी के कण जब आकाश में चढ़कर धावा बोलते है तो
सूर्य के तेज को भी नष्ट कर देते है , लेकिन
शूरवीर अपने शत्रु के आक्रमण को सफलता पूर्वक झेल लेते है |
आंधी चढ़ आकास में ,
रजकण कित ले जाय |
देवण खात पड़ोस धर ,
सूर उठै निपजाय ||२५२||
यह आंधी आकाश में चढ़कर धुल कणों को कहाँ ले जा
रही है | शायद पडौसी प्रदेशों को, जहाँ की धरती शूरवीरों को उत्पन्न करने में
कमजोर है,ताकि ये रजकण यहाँ की खाद का काम करें
व वहां की धरती भी शूरवीर उत्पन्न करने में समर्थ हो |
बालै झालै दिवसड़ो,
संध्या घणी सुहाय |
आंधी ढोलण बींजणों,
बांदी सी झट आय ||२५३||
यहाँ दिन यधपि जलता रहता है और झुलसा देता है
किन्तु संध्या बड़ी सुहानी होती है | आंधी
,दासी की भांति पंखा झलने के लिए झट चली
आती है |
काली कांठल उमड़तां,
उतर दिसा आकास |
करसां उमडै कोड मन ,
तिरसां नूतन आस ||२५४||
उतर दिशा से काली घटा उमड़ती देख किसानों का मन
हर्षित हो रहा है तथा प्यास बुझाने की नई आशा जाग उठी है |
जावै क्यों न बादली,
उण धरती , उण
राह |
पलक बिछावै पांवडा,
घर घर थारी चाह ||२५५||
हे बादली ! उस धरती और उस राह पर तूं क्यों
नहीं जाती , जहाँ लोग तुन्हारे लिए पलक पांवड़े
बिछाए रहते है तथा घर घर में तुम्हारी चाह होती है |
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