हिम-गिर सूँ आई हवा,
की लाई संदेस ?
सदा रुखालो देस रो ,
हिम-गिर राखो सेस ||३२०||
की लाई संदेस ?
सदा रुखालो देस रो ,
हिम-गिर राखो सेस ||३२०||
हिमालय पर्वत से आती हुई हे हवा ! तुम क्या सन्देश लाई हो ? उत्तर- हमेशा देश की रखवाली करने वाला हिमालय आज भी देश का रखवाला है |
उजल भारत भाल हो,
होसी रगतां लाल |
सौगन गढ़ चितौड़ री,
सौगन खनवा ताल ||३२१||
होसी रगतां लाल |
सौगन गढ़ चितौड़ री,
सौगन खनवा ताल ||३२१||
भारत भूमि का उज्जवल भाल यह हिमालय अब रक्त से लाल होगा (वीर इसकी रक्षा के लिए अपना बलिदान देंगे) | देश वासियों को गढ़- चितौड़ तथा खानवा के रण-क्षेत्र की शपथ है कि वे इसकी रक्षा के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दें |
हिम-गिर सुणों निसंक व्है,
इतो न निरबल जोय |
थूं रखवालो देस रो,
महां रखवाला तोय ||३२२||
इतो न निरबल जोय |
थूं रखवालो देस रो,
महां रखवाला तोय ||३२२||
हे हिम गिरी ! तुम निश्शंक होकर सुनों, हमें इतना निर्बल मत समझो क्योंकि तुम देश के रखवाले हो तो हम तुम्हारे रखवाले है |
पाछो जा रै पवन थूं,
कहदै हिम-गिर साँच |
बिण माथै रण मांडस्या,
आतां तौ पर आँच ||३२३||
कहदै हिम-गिर साँच |
बिण माथै रण मांडस्या,
आतां तौ पर आँच ||३२३||
हे पवन ! तुम वापस जाकर हिमालय से कह देना कि तुम पर संकट आने पर हम सिर कटने पर भी लड़ते रहेंगे |
जल देतां न दुभांत कर,
सुण सागर मरजाद |
जिण दिन रगतां भींजसी ,
उण दिन करसी याद ||३२४||
सुण सागर मरजाद |
जिण दिन रगतां भींजसी ,
उण दिन करसी याद ||३२४||
हे सागर ! तुम भी मर्यादा की दुहाई देकर राजस्थान के साथ वर्षा की दृष्टि से भेदभाव बरतते हो लेकिन जब शूरवीर अपने रक्त से इस धरती को भिगोएँगे उस रोज तेरी मर्यादा भी लज्जित होगी |
सदियाँ पैली रुठगी,
नदियाँ रूप घटाय |
सागर अजै मनायले,
आण जाण खुल जाय ||३२५||
नदियाँ रूप घटाय |
सागर अजै मनायले,
आण जाण खुल जाय ||३२५||
हे समुद्र ! तेरा उपरोक्त भेदभाव पूर्ण स्वभाव देखकर इस प्रदेश में सदा बहने वाली नदियों ने (सरस्वती आदि) तेरे से रुष्ट होकर अपने स्वरूप को घटा लिया है ,अर्थात लुप्त हो गई है | अब भी समय है तू भेदभाव स्वभाव को छोड़कर इन नदियों को प्रसन्न कर ले ताकि इनका आवागमन फिर चालु हो जाय |
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