नभ साड़ी, खग घूघरा,
ऊसा लाली गाल |
इण विध प्राची सुन्दरी,
दिन मणि धारी माल ||३२६||
ऊसा लाली गाल |
इण विध प्राची सुन्दरी,
दिन मणि धारी माल ||३२६||
प्राची रूपी सुन्दरी का वर्णन करते हुए कवि कहता है - आकाश तो इसकी साड़ी है ;पक्षी घुंघरू है, उषा की ललाई इसके गाल है और सूर्य (उगता हुआ) इसका तिलक है | इस प्रकार यह पूर्व दिशा रूपी सुन्दरी अपने रूप की घटा बिखेरती हुई अवतरित हो रही है |
सह जग जाग, जगावणों,
जागत जगती जोग |
ज्यूँ घण कुटमी गेह में,
जागत सुत इकलोत ||३२७||
जागत जगती जोग |
ज्यूँ घण कुटमी गेह में,
जागत सुत इकलोत ||३२७||
जगत ज्योति सूर्य के जगते(उदय होते) ही सब जग जाग उठता है तथा सर्वत्र जागरण की हलचल होने लगती है ,वैसे ही जैसे बड़े परिवार वाले घर में छोटा बच्चा जागकर सब घर वालों को जगा देता है |
उगतां तेज अमावड़ो,
किम झेलै सुर नाह |
भेजी बदली अपसरा,
दिनकर मेटी दाह ||३२८||
किम झेलै सुर नाह |
भेजी बदली अपसरा,
दिनकर मेटी दाह ||३२८||
सूर्य के उदित होने पर अपार तेज को कैसे सहन किया जाय ? इसीलिए इंद्र ने सूर्य के ताप को कम करने के लिए बदली रूपी अप्सरा को भेजा है |
देखै रजनी लाख चख,
तो पण नित अन्धराय |
दिन रै केवल एक चख,
कण कण जोत जगाय ||३२९||
तो पण नित अन्धराय |
दिन रै केवल एक चख,
कण कण जोत जगाय ||३२९||
रात्री अपने लाखों तारों रूपी नेत्रों से देखती है फिर भी हमेशा अँधेरा ही बना रहता है | इसके विपरीत दिन के केवल ही चक्षु सूर्य होता है ,तो भी वह कण कण में ज्योति जगा देता है | आशय यह है कि लाख कपूतों की अपेक्षा कुल का दीपक एक सपूत श्रेष्ठ होता है |
कर सूं छुट्यो कनक घट,
डूब्यो नभ-सर मांह |
उड़गण मुळकै उपरै ,
सांझ सुन्दरी स्याह ||३३०||
डूब्यो नभ-सर मांह |
उड़गण मुळकै उपरै ,
सांझ सुन्दरी स्याह ||३३०||
सुन्दरी संध्या काल के हाथ से स्वर्ण कलश छुट करके आकाश रूपी समुद्र में डूब गया (छिपते सूर्य के प्रति कल्पना है) हाथ से छूटे हुए कलश को देखकर तारे हंस दिए है (तारे प्रदीप्त होने लगे) व संध्या सुन्दरी का मुंह हंसी को सुनकर क़ाला पड़ गया | (अर्थात रात्री का आगमन हो गया)|
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