Shyari part-02

Saturday, 12 April 2014

हठीलो राजस्थान-28



पेट फाड़ पटकै सिसू ,
रण खेतां खूंखार |
बगसै माफ़ी बिरियाँ ,
सरणाई साधार ||१६६||

माता ने अपना पेट चीर कर जो पुत्र उत्पन्न किया ,वह युद्ध क्षेत्र में खूंखार सिद्ध हुआ | वह शरण में आए शत्रुओं को क्षमा प्रदान कर क्षात्र धर्म की मर्यादा निभाता है |

बुझियोड़ी सिलगै भलै,
इण धरती आ काण |
सौ बरसां नह बीसरै,
बैर चुकावण बाण ||१६७||

इस धरती की यह परम्परा है कि यह बुझी हुई सी प्रतीत होने वाली सुलगती रहती है | इसीलिए ही मरुधरा की यह परम्परा है कि यहाँ के लोग प्रतिशोध लेने की बात सौ वर्ष तक भी नहीं भूलते है |

सुरग भोग सुख लोक रौ,
चाहूं नी करतार |
बदलौ लेवण बैरियां,
जलमूं बारम्बार ||१६८||

हे ईश्वर ! मुझे इस लोक व स्वर्ग के भोगों की तनिक भी कामना नहीं है , किन्तु मैं चाहता हूँ कि शत्रुओं से बदला लेने के लिए बार-बार जन्म लेता रहूँ |

माथां हाथां लोथडां,
बैठै नह गिरजांह |
सुणी बात, ले बैर नित,
ओ प्रण रजपुतांह ||१६९||

युद्ध क्षेत्र में वीर गति प्राप्त हुए शूरवीर का शव पड़ा हुआ है | उसके सिर,हाथ व शरीर के मृत अंगों पर गीद्ध नहीं बैठ रहे है ,क्योंकि उन्होंने यह बात सुन रखी है कि राजपूतों का यह प्रण होता है कि वे सदैव अपना बदला (बैर) अवश्य लेते है | अर्थात उनको (गिद्धों को) यह भय है कि इनके मृत अंगों को खाने पर यह हमसे भी बदला लेगा |

माल उड़ाणा मौज सूं,
मांडै नह रण पग्ग |
माथा वे ही देवसी ,
जाँ दीधा अब लग्ग ||१७०||

मौज से माल उड़ाने (खाने) वाले लोग कभी रण क्षेत्र में कदम नहीं रखते | युद्ध क्षेत्र में मस्तक कटाने तो वे ही लोग जायेंगे जो अब तक युद्ध क्षेत्र में अपना बलिदान देते आये है |

दीधाँ भासण नह सरै,
कीधां सड़कां सोर |
सिर रण में भिड़ सूंपणों,
आ रण नीती और ||१७१||

सड़कों पर नारे लगाने व भाषण देने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता | युद्ध में भिड़ कर सिर देने की परम्परा तो शूरवीर ही निभाते है |

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