Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-51



सट रस भोजन सीत में,
पाचण राखै खैर |
पान नहीं पर कल्पतरु ,
किण विध भुलाँ कैर ||३०७||

(जिस फल के प्रयोग से ) सर्दी के मौसम में छ:रसों वाला भोजन अच्छी तरह पच जाता है | उस कैर (राजस्थान की एक विशेष झाड़ी) को किस प्रकार भुलाया जा सकता है जो कि बिना पत्तों वाले कल्पतरु के समान है |

कैर,कुमटिया सांगरी,
काचर बोर मतीर |
तीनूं लोकां नह मिलै,
तरसै देव अखीर ||३०८||

कैर के केरिया , सांगरी (खेजडे के वृक्ष की फली) काचर ,बोर (बैर के फल) और मतीरे राजस्थान को छोड़कर तीनों लोकों में दुर्लभ है | इनके लिए तो देवता भी तरसते रहते है |

जोड़ा मिल घूमर घलै,
घोड़ा घूमर दौर |
मोड़ा आया सायबा ,
खेलण नै गिणगोर ||३०९||

जोड़े आपस में मिलकर घूमर नाच नाचते है | घोड़े घूमर दौड़ते है | पत्नी कहती है , हे साहिबा ! आप गणगौर खेलने हेतु बहुत देर से आए है |

अण बुझ्या सावा घणा,
हाटां मुंगी चीज |
सुगन मनावो सायबा ,
आई आखा तीज ||३१०||

अबूझ (ऐसे विवाह मुहूर्त जिनके लिए पंचांग नहीं देखना पड़ता) सावों में आखा तीज (अक्षय तृतीया) का महत्व अधिक है क्योंकि इस समय सूर्य उच्च का होता है जिसके कारण अन्य ग्रहों के दोष प्रभावित नहीं कर सकते | इसीलिए कवि कहता है - अबूझ सावे तो बहुत है पर आखा तीज आ गई है इसी पर हे साहिबा (पति) विवाह का मुहूर्त निश्चित करदो यधपि इस अवसर पर वस्तुएं महंगी रहेगी |

रज साँची भड रगत सूं ,
रोडां रगतां घोल |
इण सूं राजस्थान में ,
डूंगर टीबां बोल ||३११||

यहाँ की मिटटी को शूरवीरों ने अपने रक्त से रंगा है व पत्थरों को खून से पोता है , इसीलिए राजस्थान के पहाड़ और रेतीले टीले (निर्जीव होते हुए भी) आज बोलकर उनकी गाथाओं को सुना रहे है |

आपस में व्हे एक मत ,
रज-कण धोरां रूप |
आंधी बरसा अडिग नित,
सिर ऊँचो सारूप ||३१२||

राजस्थान की साथ जीने मरने की परम्परा से ही यहाँ के मिटटी के कणों ने भी एकमत होना सीखा है ,इसीलिए ही इक्कठे हुए रज कणों से यह टीले बन गए है | संघर्षों में अडिग रहने की परम्परा से ही ये टीले आंधी व वर्षा में भी अपने मस्तक को ऊँचा किये हुए अडिग खड़े रहते है |

हटीलो राजस्थान-50


लाल उमंग ,लाली धरा,
चोली लाल फुहार |
रोली लाल गुलाल मैं,
होली लाल त्युंहार ||३०१||


फाल्गुन के महीने में लोगों के ह्रदय उमंग से भरे हुए है,जगह-जगह गुलाल के बिखर जाने से धरती लाल हो गई है ,लाल रंग व गुलाल से ललनाएं होली खेलती हुई चोलियों पर रंग फैंक रही है ,एसा यह रंगीला त्यौहार होली आ गया है |

डंडिया नाच गुवाड़ में,
हंडियां खरलां साज |
रमणी गैरां मोद-मन<
रामा सामा आज ||३०२||


होली के दुसरे दिन का वर्णन करते हुए कवि कहता है - गांव के चौक में गिंदड़ (डंडिया रास) का खेल हो रहा है | खरलों में हंडिया सजी हुई है | युवतियां मस्त होकर गेर खेल रही है | आज रामा-श्यामा का दिन है |

चेत सुमास बसंत रितु,
घर जंगल सम चाव |
गोरी पूजै गोरड़यां,
बाँवल फोग बणाव ||३०३||


बसंत ऋतु के चेत्र मास में घर और जंगल सब जगह प्रसन्नता की लहर है | स्त्रियाँ फोग (राजस्थान में होने वाला एक विशेष पौधा) का बाँवल बना कर गोरी की पूजा कर रही है |

निमजर फूली नीमडै,
लहलायौ सह गात |
हँसे ज्यूँ आकास में,
तारा गुदली रात ||३०४||


चेत में मास में नीम के पेड़ मिन्झर से लद गए है | ये ऐसे लग रहे है जैसे धुंधली रात में तारे दमक रहें हो |

फूल्यो आज पलास बन,
लाली नजर पसार |
रज गुण सूर सभाव रौ,
सकल धरी साकार ||३०५||


आज जिधर नजर दौड़ाओ,उधर जंगल में पलाश के पेड़ लाल फूलों से लहक रहे है | मानों शूरवीरों की धरती का रजोगुण ही इस लालिमा के रूप में साकार हो रहा है |

रोहीडै कलियाँ खिली,
रुड़ी, रूप प्रवीण |
जाणे बहु बजार री,
रुपाली गुण हीण ||३०६||


रोहिडे (एक वृक्ष) की गंध हीन लाल-लाल कलियाँ बड़ी रुचिर लग रही है परन्तु ये ऐसी ही है , जैसे वारवधुएँ (वेश्याएं) केवल देखने में ही सुन्दर है ,गुणों में नहीं |

हठीलो राजस्थान-49


धरती ठंडी बायरी,
धोरा पर गरमाय |
कामण जाणे कलमली,
पिव री संगत पाय ||२९५||


धरती पर बहने वाली शीतल वायु टीलों पर से गुजर कर गर्म हो जाती है ,जैसे प्रिय का संपर्क पाकर कामिनी गर्मी से चंचल हो उठती है |

सीतल पण डावो घणों,
दिलां आग लपटाय |
डावो बण तूं डावड़ा,
जालै फसलां जाय ||२९६||


उतर का शीत पवन यधपि शीतल है तथापि बहुत शरारती (चालाक)है ,जो दिलों में तो प्रिय मिलन की आग सुलगा देता है और उदंडी लड़के की तरह फसलों को जला देता है | "दावे" (ठण्ड) से फसलें जल जाती है |

लू ताती बालै नहीं,
धन जन सह सरसाय |
आ बालण उतराद री ,
रोग सोग बरसाय ||२९७||


लूएँ जलाती नहीं है , बल्कि धन-जन सबको सरसा देती है | किन्तु वह दुग्ध्कारी उतर वात(बर्फीली हवा) तो रोग और शोक बरसाने वाली है |

उमंगै धरती उपरै,
पेडां मधरो हास |
मत गयेंद ज्यू मानवी ,
आयो फागण मास ||२९८||


धरती पर उमंग छा गई है और पेड़ों पर मंद मंद मुस्कान छाने लगी है अर्थात नई कोंपले आने लगी है | फागुन मास मानवों के लिए मस्त हाथी की सी (उन्माद) लाने वाला है |

मेला फागण मोकला,
भेला भाग सुभाग |
रेला दिल दरयाव रा,
खेला गावै फाग ||२९९||


फागुन में अनेक मेले भरते है ,जिनमे सबको हर्षोल्लास होता है | सब मुक्त ह्रदय से रंग-रेलियाँ करते है तथा खेलों (लोक नृत्यों) में फाग के गीत गाते है |

पीला जाय सुहावणा,
धरती पीली रेत |
सखियाँ पोला पट किया,
सरसों पीला खेत ||३००||


बसंत ऋतू के आगमन पर सरसों के पीले खेत जहाँ एक और सुहावने नजर आते है ,वहीँ दूसरी और पीली बालू मिटटी से युक्त धरती शोभायमान हो रही है | सखियों ने पीले वस्त्र धारण कर रखें है | सर्वत्र पीली शोभा छाई है |

हठीलो राजस्थान-48


बरसालो बरसै भलो,
हवा न बाजै लेस |
धोरां में धापा करै,
मोरां हंदो देस ||२८६||


बरसात में अच्छी वर्षा हो व हवा न चले तो रेगिस्तानी इलाके में भरपूर पैदावार होती है | एसा यह मरुप्रदेश है जहाँ मोर-पक्षी अधिक होते है |

बिन बादल आकाश नित,
खै खै पवन चलाय |
काल पड़न्तां इण धरा,
मऊ मालवै जाय ||२८७||


आकाश में कहीं बदल दिखाई नहीं देते और सनन सनन हवाएं चल रही है | स्पष्ट ही ये अकाल के पड़ने के लक्षण है | अकाल पड़ने पर यहाँ के लोग पशुओं को लेकर मऊ-मालवे (मध्य-प्रदेश) की और चल देते है |

धर ऊपर सुरंगी धरा,
जिण विध देखो आय |
काल पड़न्तां कामणि,
धन बालक रुल जाय ||२८८||


वर्षा होने पर यह धरती स्वर्ग सी दिखाई देती है ,परन्तु अकाल पड़ने पर यहाँ के नर,नारी,बालक तथा पशुधन सब अन्य प्रदेशों में पलायन करने को विवश हो जाते है |

बाजै सीली बायरी,
ऊपर गाजै मेह |
सीयालो आयो सखी,
कऊं हथाई नेह ||२९३||


ठंडी हवा चल रही है और ऊपर से वर्षा के बादल गरज रहे है | हे सखी ! शीत ऋतू आ गई है | इसमें तो अलाव पर तपते हुए आपसी बातचीत करना ही प्रीति वर्धक होता है |

पीणों, पचणों , पैरणों ,
सरदी साथै आय |
खाणों , रैणों खेलणों ,
सीयालै सुख दाय ||२९४||


पानी,पचना और पहनना ये सर्दी के साथ आते है | साथ ही भोजन ,रहना और खेलना ये सब शीत ऋतू में ही सुखदायी होते है |

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