Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-31


लोपण पहलां पाल पर,
कोपण पहलां पेख |
रोपण चाल्यो आज थूं ,
मणधर माथै मेख ||१८४||

हे वीर ! तू शत्रु-सेना को देखने से पहले ही क्रुद्ध हो उसे सीमा प्रवेश करने से पूर्व ही ध्वंस करने के चल पड़ | इस प्रकार तू निश्चय ही मणिधर सर्प (शत्रु) के माथे पर (अपने शौर्य या विजय की) मेख रोपने जा रहा है |

जालै झाला, बिस जबर,
किण विध आवै हाथ ?
बल बिन चाल्यो बावला,
नागां घालण नाथ ||१८५||

जला देने वाली लपटें व भयंकर विषधारी सर्प को किस प्रकार पकड़ा जा सकता है ? हे पागल ! तू बिना बल संचय किए ही सांपो को पकड़ने के लिए चल पड़ा है |

दुबकै, भभकै ,फिर डसै,
बंबी पड़ीयां तांण |
हथ देतां जांणी नहीं,
भुजंग री आ बांण ||१८६||

उपरोक्त दोहे के प्रसंग में कहा गया है कि तू बांबी में हाथ डाल रहा है क्या तू सर्प की आदत नहीं जानता | बांबी पर जब आंच आती है तो विषधर पहले कुछ दुबकता है ,फिर फुफकारता है तथा अंत में डस लेता है |

दुसमण ! सुण ले सोचलै,
इण धरती मत झाँख |
खुड्को होतां सिव-धरा,
खुल जासी सिव-आँख |१८७||

हे दुश्मन ! तुम भली भाँती सोचलो और सुनलो | इस धरती की और कभी आँख मत उठाना | यह भूमि भगवान शंकर द्वारा रक्षित है | तुम्हारे आगमन की आहट पाते ही यहाँ शिव का तीसरा नेत्र खुल जायेगा अर्थात यहाँ के वीर प्रलयंकारी आक्रमण करके तुम्हे क्षण भर में ही नष्ट कर देंगे |

झगड़ा टणकी जातियां,
जीवै सदा जहान |
झगड़ो जीवण जगत रो,
विध रो अटल विधान ||१८८||

युद्ध करने वाली वीर जातियां इस संसार में हमेशा जीवित रहती है | संघर्ष ही जीवन है यह जगत का अटल विधान है |

जी सी वाही जातड़ी,
लड़सी झाड़ो झाड़ |
लडै पडै ,पड़ पड़ लडै,
पटकै अंत पछाड़ ||१८९||

संसार में वही जाति जीवित रहेगी जो कदम कदम पर संघर्ष करने को उधत है | जो जाति युद्ध करती है, पराजित होने पर फिर उठ खड़ी होती है , फिर लडती है व अंत में शत्रु पर विजय प्राप्त करती है , वही दीर्घकाल तक जीवित रह सकती है |

Saturday, 12 April 2014

हठीलो राजस्थान-30


तोपां जाझां ताखड़ी,
सीस पडै कट कट्ट |
बण ठण बैठा किम सरै,
रण माची गहगट्ट ||१७८||

वीर पत्नी पति से कहती है - तोपें गरजती हुई गोले बरसा रही है,जिससे शत्रुओं के मुंड कट कट कर गिर रहे है | हे स्वामी ! बन ठन कर बैठने से कैसे काम चलेगा ? देखते नहीं, युद्ध की भयंकर मार काट मची हुई है |

मत इतरावो ठाकरां,
छैलां री लख छैल |
थोडा रहसी ठायणे,
रण माचंता रौल ||१७९||

हे ठाकुर ! अपने द्वारा पाले हुए छैलों की उपरी सजधज देखकर अभिमान मत करो | जब युद्ध छिड़ेगा उस समय तुम्हारे साथ थोड़े ही लोग रह जायेंगे | अर्थात ये बन ठन कर रहने छैले उस समय नजर भी नहीं आयेंगे |

सूरां खूब सतावियो ,
कूरा कीधो मोल |
ठीक पडैला ठाकरां,
रण माचंता रौल ||१८०||

हे ठाकुर ! तुमने वीरों को तो खूब सताया और कायरों का आदर किया | अब युद्ध छिड़ने पर तुम्हे पता चलेगा कि वीरों की अवमानना करने का परिणाम क्या होता है |

निरबल धरती आ नहीं,
रिपुवां रोको सोर |
की सीहां रो सोवणों,
की अगनी कमजोर ||१८१||

शत्रु पक्ष के बढ़ते प्रताप को देखते हुए भी जो लोग संघर्ष के लिए आतुर नहीं होते उनके लिए कहा गया है - तुम सिंह हो,सिंह को उठने के एक क्षण लगता है फिर तुम उठ क्यों नहीं रहे हो | तुम अग्नि हो ,जो राख हटाते ही प्रज्वलित होने की क्षमता रखती है व जिस धरती पर तुम पैदा हुए हो वह भी निर्बल नहीं है ,फिर तुम्हारे में यह निर्बलता कहाँ से व्याप्त हुई ? उठो व शत्रुओं की बकवास को बंद करो |

अरियां थे खप जाव सौ,
इण धरती रण धीर |
रण न्योतो पा आवसी ,
लड़वा पांचू पीर ||१८२||

हे शत्रुओ ! तुम नष्ट हो जावोगे | इस धरती पर रण बाँकुरे निवास करते है | रण निमंत्रण मिलते ही यहाँ के पांचो पीर युद्ध करने के लिए आ पहुंचेंगे |
(पाँचों पीरों में लोक देवता - हडबूजी,पाबूजी ,रामदेवजी,मांगलिया मेहाजी व गोगाजी शामिल है)

देख घोर घमसाण जुध,
तोपां टूटत कोट |
पांचू पीर पधारसी ,
डंके हन्दी चोट ||१८३||

टॉप के गोलों से दुर्ग भग्न होता तथा घमासान युद्ध छिड़ता देख कर पाँचों पीर अवश्य ही आ उपस्थित होंगे |

हठीलो राजस्थान-29



लेवण आवे लपकता,
सेवण माल हजार |
माथा देवण मूलकनै,
थोडा मानस त्यार ||१७२||

मुफ्त में धन लेने के लिए व धन का संग्रह करने के लिए तो हजारों लोग स्वत: ही दौड़ पड़ते है ,किन्तु देश की रक्षा के लिए अपना मस्तक देने वाले तो बिरले ही मनुष्य होते है |

मोजां साथो मोकला,
बोलण मीठा बोल |
बिरला आसी साथ में ,
रण माचंता रौल ||१७३||

सुख में मीठे बोल कर मोज मनाने वाले साथियों की कमी नहीं है ,किन्तु रण-क्षेत्र में आव्हान होने पर साथ देने वाले बिरले ही होते है |

नह आसी आराण में,
गटक उडावण गटट |
सूरा खासी घाव सिर,
रण मचतां गह गटट ||१७४||

माल खाने वाले युद्ध में कभी नहीं आयेंगे | केवल शूरवीर ही युद्ध छिड़ने पर अपने सिर में घाव झेलेंगे |

कायर ताणे ढोल निज,
बोलै बढ़ बढ़ बोल |
सायर जाणे मोल निज,
बोलै ढब ढब तोल ||१७५||

कायर व्यक्ति बढ़ बढ़ कर बातें करता है और ढोल की तरह तना हुआ रहता है किन्तु सज्जन (शूरवीर) अपनी सामर्थ्य जानता है और वह बात तभी बोलता है जब वह अपने सामर्थ्य से तोलकर इस निश्चय पर पहुँचता है कि वह जो कुछ कह रहा है उसको पूरा कर सकता है |

सूरां वाणी सारथक,
कायर उपजै ताव |
कायर वाणी जोसरी ,
सूर न आवै साव ||१७६||

वीरों की वाणी सदैव सार्थक होती है | कायर को केवल निष्फल क्रोध आता है | कायर मात्र जोशीले बोल बोलते है परन्तु शूरवीर थोथी बढ़ाई नहीं करते |

आकासा गीला गिरै,
तोपां काढै बट्ट |
सूता घर में सायबा ,
रण मांची गहगट्ट ||१७७||

अपने पति को संबोधित करते हुए पत्नी कहती है कि आकाश से गोले गिर रहे है | तोपें आग उगल रही है | युद्ध भूमि में घमासान युद्ध छिड़ गया है और आप घर में सोये हुए है (अर्थात युद्ध में पहुँचो) ||

हठीलो राजस्थान-28



पेट फाड़ पटकै सिसू ,
रण खेतां खूंखार |
बगसै माफ़ी बिरियाँ ,
सरणाई साधार ||१६६||

माता ने अपना पेट चीर कर जो पुत्र उत्पन्न किया ,वह युद्ध क्षेत्र में खूंखार सिद्ध हुआ | वह शरण में आए शत्रुओं को क्षमा प्रदान कर क्षात्र धर्म की मर्यादा निभाता है |

बुझियोड़ी सिलगै भलै,
इण धरती आ काण |
सौ बरसां नह बीसरै,
बैर चुकावण बाण ||१६७||

इस धरती की यह परम्परा है कि यह बुझी हुई सी प्रतीत होने वाली सुलगती रहती है | इसीलिए ही मरुधरा की यह परम्परा है कि यहाँ के लोग प्रतिशोध लेने की बात सौ वर्ष तक भी नहीं भूलते है |

सुरग भोग सुख लोक रौ,
चाहूं नी करतार |
बदलौ लेवण बैरियां,
जलमूं बारम्बार ||१६८||

हे ईश्वर ! मुझे इस लोक व स्वर्ग के भोगों की तनिक भी कामना नहीं है , किन्तु मैं चाहता हूँ कि शत्रुओं से बदला लेने के लिए बार-बार जन्म लेता रहूँ |

माथां हाथां लोथडां,
बैठै नह गिरजांह |
सुणी बात, ले बैर नित,
ओ प्रण रजपुतांह ||१६९||

युद्ध क्षेत्र में वीर गति प्राप्त हुए शूरवीर का शव पड़ा हुआ है | उसके सिर,हाथ व शरीर के मृत अंगों पर गीद्ध नहीं बैठ रहे है ,क्योंकि उन्होंने यह बात सुन रखी है कि राजपूतों का यह प्रण होता है कि वे सदैव अपना बदला (बैर) अवश्य लेते है | अर्थात उनको (गिद्धों को) यह भय है कि इनके मृत अंगों को खाने पर यह हमसे भी बदला लेगा |

माल उड़ाणा मौज सूं,
मांडै नह रण पग्ग |
माथा वे ही देवसी ,
जाँ दीधा अब लग्ग ||१७०||

मौज से माल उड़ाने (खाने) वाले लोग कभी रण क्षेत्र में कदम नहीं रखते | युद्ध क्षेत्र में मस्तक कटाने तो वे ही लोग जायेंगे जो अब तक युद्ध क्षेत्र में अपना बलिदान देते आये है |

दीधाँ भासण नह सरै,
कीधां सड़कां सोर |
सिर रण में भिड़ सूंपणों,
आ रण नीती और ||१७१||

सड़कों पर नारे लगाने व भाषण देने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता | युद्ध में भिड़ कर सिर देने की परम्परा तो शूरवीर ही निभाते है |

Mera Desh Ro Raha Hai