Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-43


हेलो सुण मो बादली,
मत कर इतो गुमान |
हिम-गिर बरस्यां नह सिरै,
बरसो राजस्थान ||२५६||

हे बादली ! हमारी पुकार सुनकर इतना गर्व न करो | हिमालय पर बरसने से काम नहीं चलेगा | राजस्थान में बरसो जहाँ देश के रक्षक पैदा होते है |

बुठो भोली बादली,
तूठो जग दातार |
रूठो मत इण बार तो,
सौगन सौ सौ बार ||२५७||

हे भोली बादली ! बरसो ! हे जग को जलदान देने वाली ! इस मरुधरा पर तुष्ट हो ! रूठो नहीं ! तुम्हे मेरी सौ-सौ बार (सौगंध)शपथ है |

बाज्यां घण दिन "जांजली",
मन आसा मुरझाय |
सावण बाज्यां 'सुरियो' ,
नई आस सरसाय ||२५८||

बहुत दिनों तक सूखी हवाएं चलने से मन की आशा मुरझा जाती है | फिर सावन में उत्तर-पश्चिम के कोण से हवा चलने पर ही नई आशा उत्पन्न होती है |

बहरुप्या ऐ बादला,
नाना रूप रचाय |
रुई केरा चुंखला ,
छिण आवै छिण जाय ||२५९||

ये बादल भी बहरूपिये जैसे है ,जो नाना प्रकार के रूप धारण करते रहते है | रुई के फैले की भांति ये क्षण में आ जाते है और क्षण में विलीन हो जाते है |

उंडी दिस उतराद में ,
बीजलियाँ चमकाय |
सांतर साजो सायबा ,
रोही बास बसाय ||२६०||

उत्तर दिशा से दूर पार बिजलियाँ चमकती देखकर प्रिय अपने प्रियतम से कहती है -" हे साजन ! अब जंगल में बसने की तैयारी करो |" (दुर्भिक्ष का योग दिखाई दे रहा है)

मग जोवै नित मोरिया,
हिवडै घणो हुलास |
बरसो किम ना बादली,
सावण आयो मास ||२६१||

हे बादली ! हृदय में उल्लास भरे हुए मोर प्रतिदिन तुम्हारी बाट-जोह रहे है | श्रावण का महिना आ गया है ,तुम अब भी बरसती क्यों नहीं ?|

हठीलो राजस्थान-42



राहू डसियां नह छिपै,
छिपै न बादल ओट |
झीणी रज पड़दै छिपै ,
दिनकर करमां खोट ||२५०||

राहू के ग्रसने पर भी जो पूरी तरह नहीं छिपता और न ही बादलों की ओट में छिपता है | वही सूर्य झिनी गर्द के आवरण में छिप जाता है | इसे सूर्य के कर्मों का दोष ही कहा जा सकता है |

रजकण चढ़ आकास में,
सूरज तेज नसाय |
धावो झेलै वीर गण,
सामां पैरा जाय ||२५१||

मिटटी के कण जब आकाश में चढ़कर धावा बोलते है तो सूर्य के तेज को भी नष्ट कर देते है , लेकिन शूरवीर अपने शत्रु के आक्रमण को सफलता पूर्वक झेल लेते है |

आंधी चढ़ आकास में ,
रजकण कित ले जाय |
देवण खात पड़ोस धर ,
सूर उठै निपजाय ||२५२||

यह आंधी आकाश में चढ़कर धुल कणों को कहाँ ले जा रही है | शायद पडौसी प्रदेशों को, जहाँ की धरती शूरवीरों को उत्पन्न करने में कमजोर है,ताकि ये रजकण यहाँ की खाद का काम करें व वहां की धरती भी शूरवीर उत्पन्न करने में समर्थ हो |

बालै झालै दिवसड़ो,
संध्या घणी सुहाय |
आंधी ढोलण बींजणों,
बांदी सी झट आय ||२५३||

यहाँ दिन यधपि जलता रहता है और झुलसा देता है किन्तु संध्या बड़ी सुहानी होती है | आंधी ,दासी की भांति पंखा झलने के लिए झट चली आती है |

काली कांठल उमड़तां,
उतर दिसा आकास |
करसां उमडै कोड मन ,
तिरसां नूतन आस ||२५४||

उतर दिशा से काली घटा उमड़ती देख किसानों का मन हर्षित हो रहा है तथा प्यास बुझाने की नई आशा जाग उठी है |

जावै क्यों न बादली,
उण धरती , उण राह |
पलक बिछावै पांवडा,
घर घर थारी चाह ||२५५||

हे बादली ! उस धरती और उस राह पर तूं क्यों नहीं जाती , जहाँ लोग तुन्हारे लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते है तथा घर घर में तुम्हारी चाह होती है |

हठीलो राजस्थान-41


बीजल सी चंचल लुवां,
नागण सी खूंखार |
पाणी सूँ पतली घणी,
पैनी धार कटार ||२४४||

राजस्थान में चलने वाली गर्म हवाएं बिजली सी चंचल है ,नागिन सी भयावह है , पानी से भी पतली है तथा कटार की धार सी तीक्षण है ||

बालै , चूंवै अंग सूँ ,
नह दीसै नैणांह |
भूतण सी भटकै दिवस,
लू डरपै रैणाह ||२४५||

गर्म हवाएं आग सी जलाती है तथा पसीने के रूप में अंग प्रत्यंग से चूती है ये आँखों से दिखाई नहीं देती एवं दिन भर भूतनी सी इधर-उधर भटकती फिरती है | रात पड़ने पर ये डरकर दुबक जाती है (मरुस्थल में रात में ठण्ड पड़ती है) |

जाल्या पीलू जीमणा,
लुवां तापणों गात |
नर रहसी नी रोग नित,
इण धरती परताप ||२४६||

जाल तथा पीलू वृक्ष के फलों को खाना तथा गरम हवाओं से अपने शरीर को तपाना -इन दोनों के फलस्वरूप यहाँ के लोग सदैव निरोग रहते है | यह इस धरती का ही प्रताप है |

लुवां ! भाजो किम भला,
भाज्यां धर लाजन्त |
आई बरसा सोक आ,
लिपटी हिवडे कन्त ||२४७||

हे गरम हवाओं ! भागो मत , भागने से यह धरती लज्जित होती है | लो ! तुम्हारी यह सोतन वर्षा आ गई है व् पति (इस प्रदेश) के हृदय से लग गई है |

काला पीला रेत कण,
बायरिये चढ़ धाय |
सूरां रा संदेसडा,
परदेसां पहुंचाय ||२४८||

काले पीले रेत के कण हवा के साथ आकाश में चढ़ इधर उधर दौड़ रहे है | एसा लगता है मानों यह रजकण शूरवीरों के संदेशों को परदेश में इनकी प्रियतमाओं के पास लेकर जा रहे हों |

झीणी रज आभै झुकी,
दिनकर दीसै दोट |
जाणे कांसो वाटको,
झांकै धूमर ओट ||२४९||

आकाश में गर्द छा गई है ,जिससे सूर्य धुंधला दिखाई देता है | सूर्य एसा लगता है ,जैसे धुंए के बीच कांसे का कटोरा हो |

हठीलो राजस्थान-40



तनां तपावै ताव सूं,
मनां घणी खूंखार |
त्यागण तणी पुकार ना,
नागण तणी फुंकार ||२३८||

ग्रीष्म ऋतू प्रचंड ताप से तन को तपा रही है यह स्वभाव से ही खूंखार है जिसके कारण उष्णता अधिक है | अब गर्मी के कारण वस्त्रादि त्यागने की बात सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि लू रूपी नागिन फुंकारे भर रही है |

रूप रुखी गुण सांतरी,
संध्या सीतल थाय |
बड़का बोलण भामज्युं,
इण धर लुवां सुहाय ||२३९||

रूप (स्पर्श) में रुखी होते हुए भी ये लूएँ (गर्म हवाएं) गुण में (वर्षा योग में सहायक होने के कारण) श्रेष्ठ है | ऐसी लुओं के बाद संध्या बड़ी शीतल व सुहवानी होती है | इसी प्रकार "बडबोली" स्त्री के समान ये लूएं भी अच्छी लगती है |

बलती लुआं बाजतां,
कितरो लाभ करंत |
जलधर बरसै जोर सूं ,
इला नाज उपजंत ||२४०||

मरू-भूमि में चलने वाली ये तप्त तेज हवाएं कितनी लाभकारी है | इन्ही की बदोलत बादल बरसते है और पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न होता है |

दल बल धावो बोलतां,
रोग भोग भागंत |
लुवां हितैसी इण धरा,
जोग जती जागन्त ||२४१||

अपने दल-बल सहित जब ये गर्म हवाएं धावा बोलती है तो सब प्रकार के रोग व भोग भाग जाते है | इस प्रकार ये गर्म हवाएं इस धरती का हित चाहने वाली है क्योंकि इसके प्रभाव से लोग जागते हुए रहकर योगी व संत बन जाते है |

उगलै धरती आग आ ,
लुवां लपटा लाय |
अम्ब चढे आकास में,
पवन हिंडोला पाय ||२४२||

लपटों की गरम हुई हवाओं से यह धरती आग उगलती है | इसके फलस्वरूप धरती का जल (वाष्प बनकर) पवन हिंडोले पर बैठकर आकाश में चढ़ जाता है |

वन फल, भूतल जीव ले,
टाल टाल कर जांच |
लुवां पकावै लाड सूं ,
मधरी मधरी आंच ||२४३||

ये गर्म हवाएं जंगल के फलों और पृथ्वी के जीवों को देखकर परखकर तथा छांट-छांट कर धीमी धीमी आंच में बड़े प्यार से पकाती है | अर्थात इन गर्म हवाओं से बन फल पाक जाते है तथा प्राणी प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के अभ्यस्त हो जाते है |

Mera Desh Ro Raha Hai