Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-33



हर पूनम मेलो भरै,
नर उभै कर जोड़ |
खांडै परणी नार इक,
सती हुई जिण ठोड ||१९६||

वीर की तलवार के साथ विवाह करने वाली वीरांगना जिस स्थान पर सती हुई ,वहां आज भी हर पूर्णिमा को मेला भरता है तथा लोग श्रद्धा से खड़े हो उसका अभी-नंदन करते है |

घर सामी एक देवरों ,
सांझ पड्यां सरमाय |
दिवला केरो लोय ज्यूँ ,
दिवलो चासण जाय ||१९७||

घर के सामने ही एक देवालय है,जहाँ वह दीपक की लौ जैसी (सुकुमार) कामिनी, सांझ पड़े शर्माती हुई दीपक जलाने जाती है |

उण भाखर री खोल में,
बलती रोज बतोह |
जीवन्त समाधि उपरै,
तापै एक जतिह ||१९८||

उस पहाड़ की कन्दरा में रोजाना एक दीपक जला करता था | वहीँ उस संत ने जीवित समाधी ली थी | वहीँ पर आज एक अन्य संत तपस्या कर रहा है |

राम नाम रसना रहै,
भगवा भेसां साध |
पग पग दीसै इण धरा ,
संता तणी समाध ||१९९||

इस राजस्थान की धरती पर ऐसे संतों की समाधियाँ कदम कदम पर दिखाई देती है जिन्होंने भगवा वेश धारण किया था व जिनकी जिव्हा पर हमेशा राम नाम की ही रट रहती थी |

गिर काला काला वसन,
काला अंग सुहाय |
धुंवा की-सी लीगटी,
बाला छम छम जाय ||२००||

काले पर्वतों के बीच काले वस्त्र पहने इस श्यामा के अंग सुहावने है | धूम्र रेखा -सी यह छम-छम घुंघरू बजाती जा रही है |

राखी जाती गिर-धरा,
अटका सर अणियांह |
काला चाला भील-जन ,
काली भीलणियांह ||२०१||

काले रंग के इस भील भीलनियों ने भालों की तीखी नोकों का अपने मस्तक से सामना कर के इस गिरि-प्रदेश की शत्रुओं से रक्षा की है |

गिर-नर काला गोत सूं,
काली नार कहाय |
तन कालख झट ताकतां,
मन कालख मिट जाय ||२०२||

इस पर्वतीय प्रदेश के नर (भील) व नारी (भीलनियां) दोनों ही काले शरीर के है लेकिन उनमे इतनी पवित्रता है कि उनके काले शरीर को देखते ही देखने वाले के मन का समस्त कलुष समाप्त हो जाता है |

हठीलो राजस्थान-33



हर पूनम मेलो भरै,
नर उभै कर जोड़ |
खांडै परणी नार इक,
सती हुई जिण ठोड ||१९६||

वीर की तलवार के साथ विवाह करने वाली वीरांगना जिस स्थान पर सती हुई ,वहां आज भी हर पूर्णिमा को मेला भरता है तथा लोग श्रद्धा से खड़े हो उसका अभी-नंदन करते है |

घर सामी एक देवरों ,
सांझ पड्यां सरमाय |
दिवला केरो लोय ज्यूँ ,
दिवलो चासण जाय ||१९७||

घर के सामने ही एक देवालय है,जहाँ वह दीपक की लौ जैसी (सुकुमार) कामिनी, सांझ पड़े शर्माती हुई दीपक जलाने जाती है |

उण भाखर री खोल में,
बलती रोज बतोह |
जीवन्त समाधि उपरै,
तापै एक जतिह ||१९८||

उस पहाड़ की कन्दरा में रोजाना एक दीपक जला करता था | वहीँ उस संत ने जीवित समाधी ली थी | वहीँ पर आज एक अन्य संत तपस्या कर रहा है |

राम नाम रसना रहै,
भगवा भेसां साध |
पग पग दीसै इण धरा ,
संता तणी समाध ||१९९||

इस राजस्थान की धरती पर ऐसे संतों की समाधियाँ कदम कदम पर दिखाई देती है जिन्होंने भगवा वेश धारण किया था व जिनकी जिव्हा पर हमेशा राम नाम की ही रट रहती थी |

गिर काला काला वसन,
काला अंग सुहाय |
धुंवा की-सी लीगटी,
बाला छम छम जाय ||२००||

काले पर्वतों के बीच काले वस्त्र पहने इस श्यामा के अंग सुहावने है | धूम्र रेखा -सी यह छम-छम घुंघरू बजाती जा रही है |

राखी जाती गिर-धरा,
अटका सर अणियांह |
काला चाला भील-जन ,
काली भीलणियांह ||२०१||

काले रंग के इस भील भीलनियों ने भालों की तीखी नोकों का अपने मस्तक से सामना कर के इस गिरि-प्रदेश की शत्रुओं से रक्षा की है |

गिर-नर काला गोत सूं,
काली नार कहाय |
तन कालख झट ताकतां,
मन कालख मिट जाय ||२०२||

इस पर्वतीय प्रदेश के नर (भील) व नारी (भीलनियां) दोनों ही काले शरीर के है लेकिन उनमे इतनी पवित्रता है कि उनके काले शरीर को देखते ही देखने वाले के मन का समस्त कलुष समाप्त हो जाता है |

हठीलो राजस्थान-32


धरती जाती नह रुकै,
निबलां नांजोगांह |
रजवट बाँधी आ रसा,
जावै नह जोगांह ||१९०||

निर्बल और योग्य व्यक्तियों के अधिकार से जाती हुई धरती रूकती नहीं है क्योंकि यह धरती योग्य व्यक्तियों के साथ वीरता की रस्सी से बंधी है, अत: उन्हें छोड़कर ये नहीं जा सकती |

निबला पासै ना रुकै,
अकड़ भोग, अधिकार |
डोको फाडै डाँग नै,
टणकाई बलिहार ||१९१||

निर्बल व्यक्तियों के पास स्वाभिमान,भोग व अधिकार नहीं रुक सकते है | बलवान का डोका (सरकंडा) निर्बल की लाठी को भी चीर देता है,अत: मैं बल को ही नमस्कार करता हूँ |

व्हाली इज्जत इण धरा,
व्हालो धरम विसेस |
व्हालो रण में मरण नित,
नित व्हालो निज देस ||१९२||

इस मेरे देश की भूमि इज्जत वाली व धर्म को ही विशिष्ट मानने वाली है | यहाँ के लोग युद्ध में मरने को अभिलाषा रखने वाले व नीति पालन वाले है |

जलम लियौ जिण देस में,
भोग्यो चकवै राज |
भूल्यां उण नै किम सरै,
अबखी बेलां आज ||१९३||

हे चकवा ! मैंने इस देश में जन्म लिया है, यहीं पर मैंने राज्य भोगा है | अब इस विपत्ति की बेला में इस देश को भूलने से कैसे काम चलेगा |

की चाढूं इण देस पर,
की राखूँ करतार ?
सिर चाढूं सौ जलमती,
उतरै नी रिण-भार ||१९४||

हे विधाता ! मैं इस देश पर क्या चढ़ाऊँ व क्या रखूँ ? यदि सौ जन्म लेकर भी मैं प्रत्येक जन्म में इस देश की रक्षा के लिए मस्तक कटवाता रहूँ तो भी इस देश के ऋण से उऋण नहीं हो सकता |

बन निरजन घूंघूट करै,
पग उरभांण पंत |
भोम्याजी रो थांन लख,
कामण लाज करंत ||१९५||

निर्जन जंगल में भी भोमियाजी का थान(स्थान) देखकर कामिनी (स्त्री) आदर स्वरूप अपनी जूतियाँ उतारकर घूंघुट निकाल लेती है | (जन्म भूमि के उत्सर्ग होने वालों का मृत्यु के बाद भी सम्मान होता है )||

हठीलो राजस्थान-31


लोपण पहलां पाल पर,
कोपण पहलां पेख |
रोपण चाल्यो आज थूं ,
मणधर माथै मेख ||१८४||

हे वीर ! तू शत्रु-सेना को देखने से पहले ही क्रुद्ध हो उसे सीमा प्रवेश करने से पूर्व ही ध्वंस करने के चल पड़ | इस प्रकार तू निश्चय ही मणिधर सर्प (शत्रु) के माथे पर (अपने शौर्य या विजय की) मेख रोपने जा रहा है |

जालै झाला, बिस जबर,
किण विध आवै हाथ ?
बल बिन चाल्यो बावला,
नागां घालण नाथ ||१८५||

जला देने वाली लपटें व भयंकर विषधारी सर्प को किस प्रकार पकड़ा जा सकता है ? हे पागल ! तू बिना बल संचय किए ही सांपो को पकड़ने के लिए चल पड़ा है |

दुबकै, भभकै ,फिर डसै,
बंबी पड़ीयां तांण |
हथ देतां जांणी नहीं,
भुजंग री आ बांण ||१८६||

उपरोक्त दोहे के प्रसंग में कहा गया है कि तू बांबी में हाथ डाल रहा है क्या तू सर्प की आदत नहीं जानता | बांबी पर जब आंच आती है तो विषधर पहले कुछ दुबकता है ,फिर फुफकारता है तथा अंत में डस लेता है |

दुसमण ! सुण ले सोचलै,
इण धरती मत झाँख |
खुड्को होतां सिव-धरा,
खुल जासी सिव-आँख |१८७||

हे दुश्मन ! तुम भली भाँती सोचलो और सुनलो | इस धरती की और कभी आँख मत उठाना | यह भूमि भगवान शंकर द्वारा रक्षित है | तुम्हारे आगमन की आहट पाते ही यहाँ शिव का तीसरा नेत्र खुल जायेगा अर्थात यहाँ के वीर प्रलयंकारी आक्रमण करके तुम्हे क्षण भर में ही नष्ट कर देंगे |

झगड़ा टणकी जातियां,
जीवै सदा जहान |
झगड़ो जीवण जगत रो,
विध रो अटल विधान ||१८८||

युद्ध करने वाली वीर जातियां इस संसार में हमेशा जीवित रहती है | संघर्ष ही जीवन है यह जगत का अटल विधान है |

जी सी वाही जातड़ी,
लड़सी झाड़ो झाड़ |
लडै पडै ,पड़ पड़ लडै,
पटकै अंत पछाड़ ||१८९||

संसार में वही जाति जीवित रहेगी जो कदम कदम पर संघर्ष करने को उधत है | जो जाति युद्ध करती है, पराजित होने पर फिर उठ खड़ी होती है , फिर लडती है व अंत में शत्रु पर विजय प्राप्त करती है , वही दीर्घकाल तक जीवित रह सकती है |

Mera Desh Ro Raha Hai