Shyari part-02

Saturday, 12 April 2014

हठीलो राजस्थान-11


तीनों पोल्यां देवल्यां,
देवल तीन खड़ीह |
धव पहली सुत दूसरी,
तीजी आप लड़ीह ||६४||

दुर्ग के तीनों द्वारों की देहलियों पर तीन देवलियां है | पहली पति पर,दूसरी पुत्र पर तथा तीसरी स्वयं पर है जहाँ पर वह लड़ी थी |

चारों जुग तिहूँ लोक में,
ठावी एकज ठौड़ |
सूर-सती सुमरै सदा,
तीर्थ गढ़ चितौड़ ||६५||


चारों युगों व तीनों लोकों में एक ही तीर्थ स्थान चितौड़गढ़ धन्य है,जिसका सभी वीर व सतियाँ सदा स्मरण करती है |

बल बंकौ रण बंकड़ो,
सूर-सती सिर मोड़ |
प्रण बंकौ प्रबली धरा,
चंगों गढ़ चितौड़ ||६६||


बल में बांका,रण-बांकुरा,शूरों व सतियों का सिर-मौर,वचनों की टेक रखने वाला तथा आंटीला चितौड़ दुर्ग ही सर्व-श्रेष्ठ है |

रण रमियो,रण रोति सूं,
रणमल रणथम्भोर |
राख्यो हठ हमीर रौ,
कट-कट खागां कोर ||६७||


कवि रणथम्भोर की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि युद्ध की परम्परा को निभाने वाला वीरों का रण-स्थल यह रणथम्भोर दुर्ग अविचल है,जिसने स्वयं असिधारा से खंड खंड होकर भी वीर हमीर के हठ को अखंड रखा |

सूरो गढ़ जालौर रो,
सूरां रौ सिंणगार |
अजै सुनीजै उण धरा,
वीरम दे हूंकार ||६८||


जालौर का यह वीर दुर्ग वीरों का श्रृंगार है | उसके कण-कण में आज भी विरमदेव की हूंकार सुनाई देती है |

पच्छिम दिस पहरी सदा,
गढ़ जैसाणों सेस |
अजै रुखालो सूरतां,
अजै रुखालो देस ||६९||


जैसलमेर का यह दुर्ग सदा से ही पश्चिम दिशा का प्रहरी रहा है | यह दुर्ग आज भी वीरता की रखवाली करता हुआ देश की रक्षा कर रहा है |

हठीलो राजस्थान-10


देणी धरती दान में,
देणी नह खग जोर |
लेणों भाला नोक सूं,
वा धर रहणी ठौर ||५८||

धरती दान में तो देनी चाहिए किन्तु तलवार के जोर इसे किसी को नहीं देनी चाहिए | भालों की नोक के बल पर जो इस धरती को लेता है,यह उसी के पास रहती है | अर्थात पृथ्वी वीर भोग्या है |

डूंगर चोटयां गढ़ घणा,
टणकां राखी टेक |
रखवाला रजथान रा,
अनमी सीस अनेक ||५९||


राजस्थान में गिरी-शिखरों पर अनेक गढ़ बने हुए है,जिनकी शूरवीरों ने रक्षा की | राजस्थान में कभी नहीं झुकने वाले ऐसे अनेक रक्षकों के मस्तक आज भी गौरव से उन गढ़ों से भी अधिक ऊँचे दिखाई देते है |

जस चमकाव जगत में ,
आप दुरग इतिहास |
जडिया इण विध भाकरां,
तारां जिम आकाश ||६०||


अपनी शौर्य गाथाओं से जो जगत में अपने सुयश का प्रकाश फैलाते है,ऐसे अनेक दुर्ग,पहाड़ों पर ऐसे शोभायमान हो रहे है जैसे आकाश में तारे |

वो गढ़ नीचो किम झुकै,
ऊँचो जस-गिर वास |
हर झाटे जौहर जठै,
हर भाटे इतिहास ||६१||


वह गढ़ भला नीचे कैसे झुक सकता है,जिसका निवास सुयश के ऊँचे शिखर पर हो ,जिसके हर द्वार पर जौहर की ज्वाला जगी हो तथा जिसके हर पत्थर पर इतिहास अंकित हो |

ऊपर गढ़ में हूँ गयो,
नम नम नायो माथ |
जठै बळी इक भामणी,
दो टाबरियां साथ ||६२||


मैं पर्वत पर स्थित उस गढ़ में गया तथा श्रद्धा से झुक कर वहां बारम्बार नमन किया ,जहाँ एक वीरांगना ने अपने दो अबोध बालकों के साथ अग्नि स्नान (जौहर) किया था |

वो गढ़ दिसै बांकड़ो ,
पोल्याँ जिण रे सात |
सातूं पोल्याँ देवल्यां,
सातां मंडिया हाथ ||६३||


वह गढ़ निश्चय ही बांका है,जिसके सात दरवाजे है और सातों ही दरवाजों पर देवलियां तथा हथेलियों के चिन्ह अंकित है | अर्थात जहाँ सातों ही दरवाजों पर वीर जुझार हुए है व सातों दरवाजों पर वीरांगनाए सतियाँ हुई है |

हठीलो राजस्थान-9


धुण हिड़दै इक सांभली,
भणतां खुद भगवान |
राग सदा सत वाहिनी,
संदेसो सत -ग्यान ||५२||

हे सखी ! भगवान का भजन करते करते मुझे हृदय में स्वयं भगवान की एक धुन सुनाई देती है | उस ध्वनि से मेरे हृदय में,सत्य के कम्पन से उत्पन्न हुई एक अनुपम राग,अनुभव होती है व सत्य-ज्ञान का संदेश कानों में सुनाई देता है |

माई मां, निज मात रो,
जाणे भेद जहाण |
निज धरमा मरणो भलो ,
पर धरमां नित हांण ||५३||
सौतेली मां व अपनी जन्म दात्री मां में कितना अंतर होता है -इसे सारा संसार जानता है | ठीक एसा ही भेद स्व-धर्म और पर-धर्म में होता है | स्वधर्म के लिए मरना सदा ही श्रेयष्कर है, जबकि परधर्म सदा हानिकारक होता है |

सींचै रुधिर सजागणो,
सिर सूंपै मम सैण |
उण घर रही ज आज लग,
बोले आ धर बैण ||५४||
यह धरती कहती है कि जो जागृत रहकर मुझे रक्त से सींचते है और मेरे इंगित मात्र पर अपना सिर समर्पित कर देते है, उसी घर में मैं आज तक रही हूँ | अर्थात अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहने वाले वीरों के ही अधिकार में मैं रही हूँ |

रगतां न्हाती नित रहै,
साजै नित सिंणगार |
परणी सूं धरणी प्रबल,
नखराली आ नार ||५५||
यह धरती प्रतिदिन रक्त से स्नान करती है और प्रतिदिन नविन श्रंगार करती है | इस प्रकार यह धरती पत्नी से भी ज्यादा श्रंगार प्रिय व प्रबल है ||

इस माथै सती अमर,
सतियाँ में सिरताज |
बल परणी,धरणी बली,
एकला दिसै आज ||५६||
इस पृथ्वी पर सती अमर है | ऐसी सतियाँ में बल के साथ विवाह होने के कारण बलवती हुई यह धरती आज महान दिखती है |

उबड़ खाबड़ अटपटी,
उपजै थोड़ी आय |
मोल मुलायाँ नह मिलै,
सिर साटे मिल जाय ||५७||
उबड़-खाबड़,बेढंगी व कम उपजाऊ होते हुए भी यह धरती किसी मोल पर नहीं मिल सकती | परन्तु जो इसके अपने मस्तक का दान करते है उसको यह धरती अवश्य मिल जाती है | अर्थात राजस्थान की यह उबड़-खाबड़ अनुपजाऊ भूमि किसी मुद्रा से न

हठीलो राजस्थान-8


नैणा नाथ न निरखियौ,
परणी खांडै साथ |
बलती झाला वा रमी ,
रगड़े हन्दी रात ||४६||

उस वीरांगना ने अपनी आँखों से पति के कभी दर्शन नहीं किये ,क्योंकि विवाह के अवसर पर उसका पति युद्ध-क्षेत्र में चला गया था ,अत: पति की तलवार के साथ ही उसका विवाह हुआ था | युद्ध क्षेत्र में पति की वीर-गति का समाचार आने पर वही पत्नी,जिसके हाथों से हल्दी का रंग भी नहीं मिटा था ,अपने आप को अग्नि के समर्पित कर सती हो जाती है |

संग बल्तां लाड़ी बणे,
मांगल राग नकीब |
रण ठाडो लाडो सजै,
इण घर रीत अजीब ||४७||


चिता पर अपने वीर पति के शव के साथ सहगमन करते समय यहाँ की महिलाऐं दुल्हन का वेश धारण करती है व वीर युद्ध के लिए प्रस्थान हेतु दुल्हे का सा केसरिया वेश धारण करते है | इन दोनों अवसरों पर ही मंगल राग वाध्यों द्वारा बजाई जाती है | इस वीर भूमि का यही रिवाज है |

घर व्हाली धण सूं घणी,
धर चूमै पड़ खेत |
रगतां रंगे ओढ़णी,
रगतां बाँदै रेत ||४८||


वीरों की धरती अपनी पत्नी से भी अधिक प्यारी है | इसीलिए धराशायी होने पर वे धरती को ही चूमते है तथा अपने रक्त से उसकी मिटटी रूपी चुन्दडी को रंगते है व अपने रक्त रंजित शरीर के साथ मिट्टी को लपेट कर स्वर्ग में साथ ले जाते है |

भड पडियो रण-खेत में,
संचै पूँजी साथ |
राज सांधे निज रगत सूं,
पिण्ड- दान निज हाथ ||49||


वीर-योद्धा रण-क्षेत्र में धराशायी हो गया,किन्तु सत्य की संचित सम्पत्ति फिर भी उसके साथ है | इसीलिए किसी दुसरे को उसका पिंडदान कराने की आवश्यकता नहीं है | वह स्वयम ही अपने रक्त से भीगी हुई मिट्टी के पिण्ड बनाकर अपने ही हाथ से अपने लिए पिंडदान करता है |
(इतिहास में खंडेला के राजा केसरीसिंह द्वारा रण-भूमि में अपने रक्त से अपना पिंडदान करने का उदहारण मौजूद है राजा केसरीसिंह पर ज्यादा जानकारी जल्द ज्ञान दर्पण पर प्रस्तुत की जाएगी)



पग-पग तीरथ इण धरा ,
पग- पग संत समाध |
पग- पग देवल देहरा ,
रमता जोगी साध ||५०||


इस धरती पर स्थान-स्थान पर तीर्थ है,स्थान -स्थान पर संत-महात्माओं की समाधियाँ है ,स्थान-स्थान पर देवल और देवालय है तथा स्थान-स्थान पर यहाँ योगी और साधू महात्मा विचरण करते है |

कर भालो,करवाल कटि,
अदृस हय असवार |
इण धरती रै उपरै,
लड़ता नित जुंझार ||५१||


हाथ में भाला और कमर में तलवार बाँध कर तथा अश्व पर सवार होकर अदृश्य जुंझार इस धरती पर हमेशा लड़ते थे (युद्धरत रहते थे)

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