Shyari part-02

Thursday, 17 April 2014

हठीलो राजस्थान-40



तनां तपावै ताव सूं,
मनां घणी खूंखार |
त्यागण तणी पुकार ना,
नागण तणी फुंकार ||२३८||

ग्रीष्म ऋतू प्रचंड ताप से तन को तपा रही है यह स्वभाव से ही खूंखार है जिसके कारण उष्णता अधिक है | अब गर्मी के कारण वस्त्रादि त्यागने की बात सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि लू रूपी नागिन फुंकारे भर रही है |

रूप रुखी गुण सांतरी,
संध्या सीतल थाय |
बड़का बोलण भामज्युं,
इण धर लुवां सुहाय ||२३९||

रूप (स्पर्श) में रुखी होते हुए भी ये लूएँ (गर्म हवाएं) गुण में (वर्षा योग में सहायक होने के कारण) श्रेष्ठ है | ऐसी लुओं के बाद संध्या बड़ी शीतल व सुहवानी होती है | इसी प्रकार "बडबोली" स्त्री के समान ये लूएं भी अच्छी लगती है |

बलती लुआं बाजतां,
कितरो लाभ करंत |
जलधर बरसै जोर सूं ,
इला नाज उपजंत ||२४०||

मरू-भूमि में चलने वाली ये तप्त तेज हवाएं कितनी लाभकारी है | इन्ही की बदोलत बादल बरसते है और पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न होता है |

दल बल धावो बोलतां,
रोग भोग भागंत |
लुवां हितैसी इण धरा,
जोग जती जागन्त ||२४१||

अपने दल-बल सहित जब ये गर्म हवाएं धावा बोलती है तो सब प्रकार के रोग व भोग भाग जाते है | इस प्रकार ये गर्म हवाएं इस धरती का हित चाहने वाली है क्योंकि इसके प्रभाव से लोग जागते हुए रहकर योगी व संत बन जाते है |

उगलै धरती आग आ ,
लुवां लपटा लाय |
अम्ब चढे आकास में,
पवन हिंडोला पाय ||२४२||

लपटों की गरम हुई हवाओं से यह धरती आग उगलती है | इसके फलस्वरूप धरती का जल (वाष्प बनकर) पवन हिंडोले पर बैठकर आकाश में चढ़ जाता है |

वन फल, भूतल जीव ले,
टाल टाल कर जांच |
लुवां पकावै लाड सूं ,
मधरी मधरी आंच ||२४३||

ये गर्म हवाएं जंगल के फलों और पृथ्वी के जीवों को देखकर परखकर तथा छांट-छांट कर धीमी धीमी आंच में बड़े प्यार से पकाती है | अर्थात इन गर्म हवाओं से बन फल पाक जाते है तथा प्राणी प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के अभ्यस्त हो जाते है |

हठीलो राजस्थान-39


गरम धरा, गरमी गजब,
गरम पवन परकास |
सूरां तणों सभाव ओ,
इला तणों उछवास ||२३२||

यहाँ (राजस्थान)की धरती गर्म है,यहाँ गजब ढाने वाली गर्मी पड़ती है | हवाएं भी गर्म चलती है | उपरोक्त गर्मी यहाँ बसने वाले शूरवीरों के उग्र स्वभाव का प्रभाव है अथवा यहाँ की धरती द्वारा छोड़ी गए उच्छवासों के कारण है |

बादल डरपै बरसतां,
बीजल डरै खिवंत |
रगतां प्यासी आ धरा,
पांणी कम पिवन्त ||२३३||

बादल यहाँ पर जल बरसाते हुए डरता है तथा बिजली यहाँ चमकते हुए भय खाती है ,क्योंकि उसे संकोच है कि यहाँ धरती जिसकी प्यास शूरवीरों ने अपने रक्त से बुझाई है वह जल कैसे पीयेगी |

खग झल डरती नीसरी,
रूप बदल जल धार |
नरां ,तुरंगा , नारियां ,
निपजै पाणी दार ||२३४||

उपरोक्त दोहे के सन्दर्भ में कहा गया है कि यहाँ शूरवीरों की तलवार की चमक से डरते हुए यहाँ पर वर्षा नहीं होती लेकिन जल इस प्रदेश को छोड़ना भी नहीं चाहता ,अत: वह पराक्रम का रूप धारण करके यहाँ के मनुष्यों,नारियों व घोड़ो में निवास करता है |

जल धर रूठा नित रहै.
धर-जल उण्डी धार |
नारी न्हावै अगन में,
नर न्हावै खगधार ||२३५||

बादल यहाँ सदैव रूठे रहते है और धरती में जल भी बहुत गहरा है | फलत: यहाँ की नारियां तो अग्नि में स्नान (जौहर)करती है और पुरुष खड्ग धार में (शाका करके)|

अंतर सुलगै आग सूं,
अजै न पूरी आस |
अधूरा अरमान री,
लूवाँ नित उछवास ||२३६||

यहाँ के लोगों के हृदय में जब तक उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो जाती पीड़ा की आग सुलगती रहती है | जब तक अरमान पूरे नहीं हो होते उच्छ्वास उठते रहते है जिसके परिणाम स्वरूप ही इस धरती पर हवा गर्म होकर बहती है |

आज अमुजो आकरो ,
नंगो बदन बणाय |
लुवां रुखाली लाजरी,
फिर गाबा पहराय ||२३७||

आज दम घोटू गर्मी के कारण सबने शरीर के कपडे उतार दी व इस निर्लज्जता को देखकर लज्जा की रक्षा हेतु गर्म हवाएं बहने लगी जिसके परिणाम स्वरूप लोगों को स्वत: ही पुन: वस्त्र पहनने पड़े |

हठीलो राजस्थान-38


उलझी टापां आंतड़यां,
भालां बिन्धयो गात |
भाकर रो भोम्यों करै,
डाढ़ा घोडां घात ||२२७||

घोड़े पर सवार शिकारी जंगल में सूअर पर प्रहार करता है -भाले से सूअर का शरीर बिंध गया है | घायल सूअर पर शिकारी के घोड़े के पैर जाकर गिरने से उसकी आंतडियां प्रभावित हुई है पर फिर भी पहाड़ का भोमिया सूअर निरुत्साहित नहीं हुआ व् अपने मुख से घोड़े के शरीर को काट कर आघात करता है |

मगरो छोडूं हूँ नहीं ,
भुंडण मत बिलमाय |
सेलां टकरां झेलसूं,
भाग्यां बंस लजाय ||२२८||

हे भुंडण (सुअरी) मुझे फुसलाने की कोशिश मत कर मैं इस पहाड़ी क्षेत्र को हरगिज नहीं छोडूंगा | मैं यहीं रहकर शिकारियों के सेलों की टक्कर झेलूँगा क्योंकि भागने से मेरा वंश लज्जित होता है |

चीतल काला छींकला,
गरण गरण गरणाय |
जान, सिकारी लुट लै,
नैणा नार चुराय ||२२९||

काले धब्बों वाला चीतल अपनी ही मस्ती में मस्त रहता है | शिकारी अकारण ही उसके प्राण-हरण कर लेता है किन्तु उसकी सुन्दर आँखों को तो नारी ने पहले ही चुरा लिया है |

सुरबाला पूछै सदा ,
अचरज करै सुरेस |
पसु पंखी,किम मानवी,
इण धर रूप विसेस ||२३०||

राजस्थान की इस धरती के पशु पक्षी व मानव इतने सुन्दर है कि देवांगनाएँ भी आश्चर्य चकित हो इंद्र से पूछती है कि इन्हें ऐसा रूप कहाँ से मिला ? |

संत तपस्या,सती झलां,
सूरा तेज हमेस |
तीनों तप भेला जठै,
गरमी क्यूं न बिसेस ||२३१||

संतो की तपस्या,सतियों के जौहर की ज्वाला तथा शूरवीरों का तेज यहाँ हमेशा बना रहा है | ये तीनों तप जहाँ इक्कठा हो ,वहां भला विशेष गर्मी क्यों न हों |(यही कारण है कि राजस्थान में गर्मी अधिक पड़ती है)|

हठीलो राजस्थान-37


ओडे चूँखै आंगली,
खेलै बालो खेल |
बिणजारी हाँकै बलद,
माथै ओडो मेल ||२२०||



बालक टोकरे में अपनी अंगुली चूसता हुआ खेल रहा है व उसकी माता (बिणजारी) टोकरे को सिर पर लिए हुए अपने बैलों हांकती हुई चली जा रही है |

देखो जोड़ी हेत री,
हित हन्दो बरताव |
इक मरतां बीजो मरै,
सारस रोज सभाव ||२२१||



परस्पर प्रेम में बंधी और नेह को निभानी यह सारस की जोड़ी कैसी अनूठी है कि जो एक के मरने पर दूसरा भी अपने प्राण त्याग देता है |
जाणी मोर न जगत में,
वाणी , रूप अनूप |
आई धरती ऊपरै,
सुन्दरता धर रूप ||२२२||




मोर ने कभी यह नहीं जाना कि उसकी वाणी और रूप संसार में दोनों ही अनुपम है | एसा लगता है ,जैसे सुन्दरता सदेह पृथ्वी पर अवतरित हुई है |

मालाणी घोडा भला,
पागल जैसाणेह |
मदवा नित बीकाण,
नारा नागाणेह ||२२३||



मालाणी प्रदेश के घोड़े श्रेष्ठ होते है तथा जैसलमेर के ऊंट | बीकानेर की गाय तथा नागौर के बैल श्रेष्ठ होते है |

बिन पाणी बाढ़े धरा,
पाणी धर तेलोह |
पाणी हिलै न पेटरो,
पाणी रो रेलोह ||२२४||



थली(मरुस्थल) का ऊंट रेगिस्तानी भूमि पर बिना पानी के ही जल के प्रवाह की तरह चलता हुआ धरती को पार करता रहता है व उसकी गति इतनी सुस्थिर होती है कि सवार के पेट का पानी भी नहीं हिलता |
डक डक नालियां बाजतां,
चालै मधरी चाल |
हवा न पूगै भगतां,
ताव पड़न्तां ताल ||२२५||




पैरों की हड्डियाँ के जोड़ों से डक-डक की आवाज करते हुए थली का ऊंट मंद गति से चलना पसंद करता है ,किन्तु समय की मांग का दबाव पड़ने पर इतनी तेज गति से दौड़ता है कि हवा भी उसे नहीं पहुँच सकती ||

हानै चमकै गोरबन्द,
पग नेवर झणकार |
पाछै झुमै कामिणी,
ओटी राग मलार ||२२६||


ऊंट के अगले भाग पर गोरबंद व पैरों में नेवर की झंकार हो रही है | ऊंट पर अगले होने में सवार बैठा मल्हार गा रहा है व पिछले हाने में बैठी उसकी पत्नी मस्ती से झूम रही है |

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