Shyari part-02

Friday, 11 April 2014

हठीलो राजस्थान -3


खल खंडण,मंडण सुजण,
परम वीर परचंड |
तो भुज -दंडा उपरे,
भारत करै घमण्ड ||१६||

दुष्टों का नाश और सज्जनों का पालन करने वाले यहाँ के वीर अत्यंत प्रचंड है ; जिनके भुज-दण्डो पर भारत को गर्व है|

भारथ कर भारत रंग्यो,
कण-कण भारत काज |
राखी भारत लाज नित,
अंजसे भारत आज ||१७||


यहाँ के वीरों ने भारत -भूमि की रक्षा के लिए प्रचंड युद्ध करके भारत-भूमि के कण-कण को रक्त-रंजित कर दिया | उन्होंने सदैव भारत की लाज रखी,जिस पर आज भी देश गर्व करता है |

मत कर मोद रिसावणों,
मत मांगे रण मोल |
तो सिर बज्जे आज लौ ,
दिल्ली हन्दा ढोल ||१८||


हे राजस्थान ! तू अपनी वीरता पर गर्व मत कर ,रुष्ट भी मत हो और न रण भूमि में लड़ने के लिए प्रतिकार के रूप में किसी प्रकार के मूल्य की ही कामना कर | क्योंकि आज तक दिल्ली की रक्षा के लिए आयोजित युद्धों के नक्कारे तेरे ही बल-बूते बजते रहे है |

हरवल रह नित भेजणा,
चुण माथा हरमाल |
बाजै नित इण देश रा,
तो माथै त्रम्बाल ||१९||


तुने सदैव युद्ध-भूमि में रहकर भगवान् शिव की मुंड-माला के लिए चुन-चुन कर शत्रुओं के शीश भेजे है | तेरे बाहू-बल के भरोसे ही इस देश के रण-वाध्य बजते आये है |

पान फूल चाढ़े जगत,
अमल धतुरा ईस |
थुं भेजे हरमाल हित,
चुण-चुण सूरां सीस ||२०||


संसार भगवान शंकर को पत्र-पुष्प तथा अफीम-धतूरे आदि की भेंट चढ़ाता है ,किन्तु हे राजस्थान ! तूं तो उनकी मुंड-माला के किये चुन-चुन कर शूरवीरों के शीश समर्पित करता है |

हिंद पीछाणों आप बल,
करो घोर घमसाण |
बिण माथै रण मांडणों ,
हरबल में रजथान ||२१||


हे भारत ! तुम अपनी शक्ति की स्वयं पहचान करो व घमासान युद्ध में जुट जाओ | तुम क्यों डरते हो ? सिर कटने पर भी भयंकर संग्राम करने वाले वीरों का देश राजस्थान आज युद्ध-भूमि में अग्रिम पंक्ति (हरावल) में जो है |

हठीलो राजस्थान -२


बहु धिन भाग वसुन्धरा,
धिन धिन इणरो तन्न |
दुरगा लिछमी सुरसती ,
तिन्युं जठै प्रसन्न ||१०||

इस वसुन्धरा(राजस्थान)का भाग्य धन्य है,और इसका शरीर भी धन्य है,क्योंकि इस पर दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती तीनों देवियाँ प्रसन्न है |(यहाँ पर वीरों की अधिकता से शौर्य की देवी दुर्गा की प्रसन्नता,धनवानों की अधिकता से धन की देवी लक्ष्मी की प्रसन्नता और विद्वानों की अधिकता के कारण विद्या की देवी सरस्वती की प्रसन्नता का भान होता है |

केसर निपजै न अठै,
नह हीरा निकलन्त |
सिर कटिया खग झालणा,
इण धरती उपजंत || ११||


यहाँ केसर नहीं निपजती,और न ही यहाँ हीरे निकलते है | वरन यहाँ तो सिर कटने के बाद भी तलवार चलाने वाले वीर उत्पन्न होते है |

सोनो निसरै नह सखी ,
नाज नहीं निपजन्त |
बटक उडावण बैरियां,
इण धरती उपजंत ||१२||


हे सखी ! यहाँ सोना नहीं निकलता;और न ही यहाँ अनाज उत्पन्न होता है | यहाँ पर तो शत्रुओं के टुकड़े-टुकड़े करने वाले वीर-पुत्र उत्पन्न होते है |

नर बंका,बंकी धरा,
बंका गढ़ , गिर नाल |
अरि बंका,सीधा करै,
ले बंकी करवाल ||१३||


राजस्थान के पुरुष वीर है,यहाँ की धरती भी वीरता से ओत-प्रोत है,दुर्ग,पहाड़ और नदी-नाले भी वीरता प्रेरक है | हाथ में बांकी तलवार धारण कर यहाँ के वीर रण-बाँकुरे शत्रुओं को भी सीधा कर देते है |

जुंझारा हर झूपड़ी,
हर घर सतियाँ आण |
हर वाटी माटी रंगी ,
हर घाटी घमसाण ||१४||


यहाँ पर प्रत्येक झोंपड़ी में झुंझार हो गए है,हर घर सतियों की आन से गौरान्वित है ,प्रत्येक भू-खंड की मिटटी बलिदान के रक्त से रंजित है ,तथा हर घाटी रण-स्थली रही है |

हर ढाणी,हर गांव में ,
बल बंका, रण बंक |
भुजां भरोसै इण धरा,
दिल्ली आज निसंक ||१५||


यहाँ हर ढाणी और हर गांव गांव में बल बांके और रण-बांके वीर निवास करते है | जिनके भुज-बल के भरोसे दिल्ली (देश की राजधानी) निस्शंक (सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त )है|

हठीलो राजस्थान -1

दीधा निज गुण देवता,
रिखियां दी आसीस |
जिण दिन सिरजी मरुधरा,
सोणी नायो सीस ||||


जिस दिन विधाता ने इस मरुधरा (राजस्थान)का सृजन किया ,उस दिन देवताओं ने उसे अपने गुण प्रदान किये तथा ऋषियों ने आशीर्वाद दिया एवं पृथ्वी ने अपना शीश झुकाया


धरमराज दीधो धरम,
भिखम प्रण बलवान |
विष्णु खमा शिव रोस निज ,
सुरसत वाणी दान ||||



धर्मराज युधिष्टर ने इस राजस्थान में धर्म को व भीष्म पितामह ने दृढ-प्रण-पालन को स्थापित किया | विष्णु ने क्षमा,शिव ने अपना रोष व सरस्वती ने इसे वक्तत्व की क्षमता प्रदान की |


सूरज दीधो तेज सह,
धनपत धन गुणरास |
सतियाँ मिल सतवान की,
रजरूडी रज वास ||||


सूर्य ने इसे अपना तेज देकर तेजस्वी व धनपति धनकुबेर ने इसे धन व गुणों का भण्डार प्रदान किया | सतियाँ ने मिलकर यहाँ सत्य धर्म की स्थापना की | इन गुणों का विकास व पालन ही इस राजस्थान की परम्परा है |

अरजण दिधि वीरता,
माधव नीती मन्त्र |
पवन तनय बल आपियो ,
द्रोण दियो रण- तंत्र ||||


अर्जुन ने इस वीर भूमि को वीरता प्रदान की तो श्री कृष्ण ने इसे नीती का मन्त्र दिया | पवन-सुत हनुमान ने इसे अतुल बल-पराक्रम प्रदान किया तो द्रोणाचार्य ने रण नीती का पाठ पढ़ाया |

दीधी करण सुदानता,
दुरजोधन निज आण |
सीतापत सूं सीखली,
कुळ मरजादा कांण ||||


कर्ण ने इसे अपनी दानशीलता तथा दुर्योधन ने आन पर मर मिटने की शिक्षा दी | सीतापति भगवान राम से इसने अपने कुल की मर्यादा की सीमा का ज्ञान सिख लिया |

जबरन धाड़ो दौड़ता,
दिसै ना कुछ दोस |
सुरबाला रो रूप सह,
लीधो इण धर खोस ||||


वीर धर्म के अंतर्गत बल-प्रयोग द्वारा बलवान और सम्पन्न पर डाका डालने में एक भी दोष नहीं दिखाई देता है | इसी सिधान्तानुसार इस राजस्थान ने सुर-ललनाओं के समस्त रूप को डाका डालकर छीन लिया |

दीधा न जो देवता,
लुठा पण ही लीन |
इन्दर भाग्यो आंतरै,
अब लग बिरखाहीन ||||


देवताओं ने जो इसे नहीं दिया ,उसे यहाँ के वीरपुत्रों ने अपने भुज-बल से बलपूर्वक ले लिया | इससे भयभीत होकर देवताओं का राजा इंद्र कहीं दूर भाग गया था | यही कारण है कि इस धरती पर आज तक वर्षा क्षीण होती है |

सुरसत आवै इण धरा ,
हंस भलां असवार |
इक हाथ वीणा बाजणी,
बीजै हथ तरवार ||||


हे सरस्वती ! आप इस धरा पर अपने वाहन हंस पर आरूढ़ होकर आयें | आपके एक हाथ में भले ही वीणा हो ,परन्तु दुसरे हाथ में तलवार अवश्य होनी चाहिए | (क्योंकि इस वीर भूमि में आपका अवतरण बिना तलवार के शोभा नहीं देगा) |

नम-नम नाऊँ माथ नित,
सुरसत दुरगा माय |
दोन्यू देव्यां मेल इत,
सोनो गंध सुहाय ||||


मैं नित माँ शारदा और दुर्गा के बारम्बार मस्तक नवाता हूँ | यहाँ इन दोनों ही देवियों में परस्पर अटूट प्रेम रहा है ,जो मानों सोने में सुगंध के समान है | (यहाँ विद्या और वीरता का मणि -कांचन संयोग रहा है) 


श्री क्षत्रिय युवक संघ के अग्रणी नेताओं में से एक स्व.आयुवान सिंह जी शेखावत ने अपनी कलम से कई पुस्तकों के साथ "हठीलो राजस्थान " नामक पुस्तक में ३६० दोहों का एक संग्रह लिखा | हालाँकि उनके दोहों की भाषा कठिन नहीं थी फिर भी आज के पढ़े लिखे लोगों के लिए राजस्थानी भाषा अपनी होते हुए भी परायी सी हो गयी अत: आयुवान सिंह समृति संस्थान ने उनके दोहों का संग्रह डा.नारायण सिंह जी भाटी,डा.शम्भूसिंह जी मनोहर,श्री रघुनाथ सिंह जी कालीपहाड़ी के सहयोग से हिंदी अनुवाद भी साथ में प्रकाशित किया |


Saturday, 7 September 2013

इतिहास याद दिलाये


इतिहास याद दिलाये मेवाड़ी जयमल पत्ता की !
मेवाड़ी जयमल पत्ता की ! जागो ! जागो !!

जली रानियाँ जौहर व्रत ले , अंगारों से खेली थी अंगारों से खेली |
शान बेचकर कायर की भांति अश्रु धारा ले ली अब अश्रु धारा ले ली ||

भूल गया क्यों भोले तलवार राणा सांगा की !
तलवार राणा सांगा की ! जागो ! जागो !!

केशरिया बन जूझ गए हमको गौरव देने , हाँ हमको गौरव देने |
रखते क्यों नहीं प्राण ह्रदय में उनकी पीडा लेने रे उनकी पीडा लेने ||

आई प्रलय की बेला , है मांग गोरा बादल की !
है मांग गोरा बादल की जागो ! जागो !!

यहाँ घास की रोटी से वैभव ने हार मानी वैभव ने हार मानी |
इस धरती से गूंज रही जीवन की अमर कहानी - जीवन की अमर कहानी ||

वह थाती न गुमाना , महान हल्दी घाटी की !
महान हल्दी घाटी की जागो ! जागो !!

चढा नहीं पूजा में तो पैरों से कुचलेंगे -हाँ पैरों से कुचलेंगे |
कल जो कुचले गए आज फिर तुमसे बदला लेंगे - वे तुमसे बदला लेंगे ||

बिता युग है कोस रहा , धिक्कार ऐसे जीने को |
धिक्कार ऐसे जीने को जागो ! जागो !!


श्री अर्जुन सिंह व कैलाशपाल सिंह द्वारा २४ दिसम्बर १९५८ को रचित |

Mera Desh Ro Raha Hai